रुपनारायन सिंह, घूरपुर/प्रयागराज!! कहते हैं कि कांवड़िया रावण थे। मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने भी सदाशिव को कांवड़ चढ़ाई थी। आनंद रामायण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि भगवान राम ने कांवड़िया बन कर सुल्तानगंज से जल लिया और देवघर स्थित बैजनाथ ज्योतिलिंग का अभिषेक किया। कंधे पर गंगाजल लेकर भगवान शिव के ज्योतिलिंगों पर चढ़ाने की परम्परा कांवड़ यात्रा कहलाती है। कहते हैं यह भक्तों को भगवान से जोड़ती है। महादेव को प्रसन्न कर मनोवांछित फल पाने के लिए कई उपायों में एक उपाय कांवड़ यात्रा भी है, जिसे शिव को प्रसन्न करने का सहज मार्ग माना जाता है। कांवड़ तब बनती है जब फूल, माला,घण्टी और घुंघुरु से सजे दोनों किनारों पर वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल का भार पिटारियों में रखा जाता है। धूप-दीप की खुशबू, मुख में बोल बम का नारा मन मे बाबा एक सहारा। भोले नाथ कांवर से गंगाजल चढ़ाने से सबसे ज्यादा प्रसन्न होते हैं। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि जब समुद्रमंथन के बाद 14 रत्नों में विष भी निकला था और भोलेनाथ ने उस विष का पान करके दुनिया की रक्षा की थी। विषपान करने से उनका कण्ठ नीला पड़ गया और कहते हैं इसी विष के प्रकोप को कम करने व, उसे ठंडा करने के लिए शिवलिंग पर जलाभिषेक किया जाता है और इस जलाभिषेक से शिव प्रसन्न होकर आप की मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। सामान्य कांवड़िए कांवड़ यात्रा के दौरान जहां चाहे रुककर आराम कर सकते हैं। आराम करने के दौरान कांवड़ स्टैंड पर रखी जाती है, जिससे कांवड़ जमीन से न छुए। इस यात्रा को बिना नहाए कांवड़ यात्री कांवड़ को नहीं छूते। तेल, साबुन, कंघी की भी मनाही होती है। यात्रा में शामिल सभी एक-दूसरे को भोला, भोली या बम कहकर ही बुलाते हैं। यमुनापार के लगभग सभी क्षेत्रों से होकर दर्शनार्थी भगवान भोले शंकर के शिवलिंग पर जलाभिषेक करने लोग जा रहे हैं। जिसमें श्रद्धालु केसरिया रंग की वेशभूषा धारण कर नाचते गाते हर्षोल्लास के साथ देवस्थलियों के लिए रवाना हो रहे हैं एवं वापसी कर रहे हैं। जिससे यहां के गलियों, चौराहों व मुहल्लों में भक्तिमय माहौल बना हुआ है।