रुपनारायन सिंह/प्रयागराज!! मान्यता है कि भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को ललही छठ व्रत का त्योहार मनाया जाता है और ललही छठ को हल षष्ठी या हल छठ भी कहा जाता है. दरअसल, इसे बलराम के जन्मदिन के उपलक्ष में मनाया जाता है और भगवान श्रीकृष्ण के जन्म से ठीक दो दिन पूर्व उनके बड़े भाई बलराम जी का जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म भादों मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को हुआ था। इसलिए इस दिन को बलराम जयंती भी कहा जाता है। बलराम को बलदेव, बलभद्र और बलदाऊ के नाम से भी जाना जाता है। बलराम को शेषनाग का अवतार माना जाता है। कहा जाता कि बलराम को हल और मूसल से खास प्रेम था और यही उनके प्रमुख अस्त्र भी थे। इसलिए इसदिन किसान हल, मूसल और बैल की पूजा करते हैं। इसे किसानों के त्योहार के रूप में भी देखा जाता है। व्रती महिलाएं अपने संतान की लंबी आयु के लिए। इस दिन व्रत रखती हैं और अनाज नहीं खाती हैं इस दिन व्रत रखने वाली माताएं महुआ की दातुन करती हैं। कई जगहों पर हल छठ, ललही छठ या फिर तिनछठी भी इसे कहा जाता है। इस व्रत में हल से जुती हुई अनाज और सब्जियों का इस्तेमाल नहीं किया जाता तथा इस दिन तालाब में उगे अनाज जैसे कि तिन्नी या पसही के चावल खाकर व्रत रखा जाता है और गाय का दूध और दही का इस्तेमाल भी इस व्रत में वर्जित होता है। इस पूजा में केवल भैंस का दूध, दही और घी का प्रयोग किया जाता है। इस व्रत की पूजा हेतु भैंस के गोबर से पूजा घर में दीवार पर ललही छठ माता का चित्र बनाया जाता है और गणेश तथा माता गौरा की पूजा की जाती है। कई जगहों पर महिलाएं तालाब के किनारे या घर में ही तालाब बनाकर, उसमें झरबेरी, पलाश और कांसी के पेड़ लगाती हैं। इस तालाब के चारों ओर आसपास की महिलाएं विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर हल षष्ठी की कथा सुनती हैं। जैसे कि एक नगर में एक ग्वालिन गर्भवती थी। उसका प्रसवकाल नजदीक था, लेकिन दूध-दही खराब न हो जाए, इसलिए वह उसको बेचने चल दी। कुछ दूर पहुंचने पर ही उसे प्रसव पीड़ा हुई और उसने झरबेरी की ओट में एक बच्चे को जन्म दिया। उस दिन हल षष्ठी थी। थोड़ी देर विश्राम करने के बाद वह बच्चे को वहीं छोड़ दूध-दही बेचने चली गई। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने गांव वालों को छल कर दूध बेच दिया। इससे व्रत करने वालों का व्रत भंग हो गया। जिससे ग्वालिन के पाप के कारण झरबेरी के नीचे स्थित पड़े उसके बच्चे को किसान का हल लग गया। दुखी किसान ने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांकें लगाए और चला गया। जब ग्वालिन वापस लौटी तो बच्चे की ऐसी दशा देख कर उसे अपना पाप याद आ गया। उसने तत्काल प्रायश्चित किया और गांव में घूम- घूम कर अपनी ठगी की बात बताई और उसके कारण खुद को मिली सजा के बारे में सबको बताया। उसके सच बोलने पर सभी ग्रामीण महिलाओं ने उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया। इस प्रकार ग्वालिन जब लौट कर खेत के पास आई तो उसने देखा कि उसका मृत पुत्र तो खेल रहा है। उसने ललही षष्ठी व्रत का प्रण लिया और दुसरे साल से व्रत रहते हुए विधि विधान पूजा अर्चना करने लगी।